मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

अभयानंद शिष्य का गुरु मिलन





अभयानंद शिष्य का  गुरु मिलन 
एक बार की बात है निखिलेस्वरानन्द जी हिमालय में साधनारत थेउस समय एक व्यक्ति बार बार उनसे मिलने की कोशिश करता रहता था तब गुरूजी नेउस व्यक्ति को सेवा में रख लिया उसका नाम अभयानंद था वह रोज सवेरे जल्दी उठकर गुरूजी के स्नान केलिए गरम पानी करता कपडे धोता इसके बाद गुरूजी साधना मेंबैठजाते  और कई कई घण्टे एक ही मुंद्रा में बैठे रहते और 

जब शाम को उठकर कुटिया में जाते तब थककर चूर हो जाते तब अभयानन्द गुरूजी की थकावट दूर करने के लिए पैर दबाते औरजब गुरूजी सो जाते तब खुद भी सोने के लिए चले जाते इस प्रकार से दिन गुजरने लगे कभी कभी गुरूजी अभयानंद को दूर यात्रा पर भेजते तब अभ्यानंद उस काम को जल्दी से खत्म करके उसी दिन वापिस लौट आते क्योंकि गुरुजी उनकी परिक्षा  ले रहे थे इसलिए 

वह उनको बार बार कोई नया काम सौपते और अभ्यानन्दजी भी उस काम में सफल होकर दिखा देते उन दिनों हिमालय में निखिलेस्वरानंदजी का नाम सबसे उच्चकोटि के सन्यसी के रूप में प्रसिद्दि था इसीलिए अभ्यानंद ने एक दिन गुरूजी के सामने अपने शिष्य बनने का आग्रह बड़े ही विनीत भाव से रखा लेकिन इतनी सेवा के बदले भी गुरूजी ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया फिर भी 

अभ्यानंद गुरूजी की सेवा उसी प्रकार करते रहे क्योकि उन्हें मालुम था कि इनसे जो ज्ञान मुझे मिल सकता है वह कही अन्यंत्र से प्राप्त नहीं हो सकता समय धीरे धीरे और आगे बढ़ने लगा एक दिन ऐसा हुआ कि अभ्यानंद सुबह सोते ही रहे थकावट के कारण उनकी आँख नहीं खुल पायी जब काफी देर बाद जगे तो तुरन्त गुरूजी को ढूढ़ने लगे लेकिन गुरूजी वहा से जा चुके थे क्योकि अभ्यानंद 

को मालुम था कि गुरूजी एक स्थान पर दो तीन दिन से अधिक नहीं रुकते और आज तीन दिन हो चुकें थे तो शायद अब नहीं लौटेंगे यह सोचकर अभ्यानंद बहुत परेशान हुए तभी उन्होंने कुटिया के बहार देखा कि कदमो के निशान जमीन पर बने है उन पैरो के निशानों को ढूढ़ते हुए वह आगे बढ़ने लगे वह निशान एक पहाड़ी की ओर जा रहे थे अभ्यानंद भी उस पहाड़ी पर चढ़ने लगे 

ऊपर पहुंचकर उन्होंने देखा कि निखिलेस्वरानंदजी एक शिला पर बैठे है और उनके सामने ही कुछ शिष्य बैठे हुए है वह उनको प्रवचन कर रहे है तभी निखिलेस्वरानंदजी ने प्रवचन बीच में ही रोककर कहा क़ि तुम यहाँ भी मेरा पीछा करते आ गये अभ्यानंद ने साष्टांग प्रणाम किया और रोते हुए शिष्य बनाने के लिये प्रार्थना की शायद गुरूजी अभी और परिक्ष्ा लेना चाहते थे इसलिए 

गुरूजी ने कहा कि तुम अगर मेरा शिष्य बनना चाहते हो तो अभी नीचे पहाड़ से कूद जाओ चूकि पहाड़ बहुत उचा था और गुरूजी यह सोच रहे थे कि यह उचाई से कूदेगा नहीं तब मै इसे इन्कार कर दूगा मगर हुआ इसके विपरीत और तभी अभ्यानन्दजी ने बिना सोचे समझे छलांग लगा दी परिणाम यह हुआ कि उनका शरीर जगह जगह से क्षत विक्षत  हो गया और कुछ अंग तो शरीर से 

बिलकुल अलग हो गये यह देखकर सभी हतप्रभ रह गये तभी गुरूजी ने सभी शिष्यों को आज्ञा दी कि अभ्यानंद को तुरंत उठाकर मेरे सामने लाओ सभी शिष्य नीचे भागकर अभयानंद को उठाकर लाये और गुरूजी के सामने लिटा दिया तब गुरूजी ने अभयानंद को पुछा तुम कैसे हो और अभयानंद ने गुरूजी को कहा कि मुझे अब तो अपना शिष्य बना ले तभी गुरूजी ने प्राण संजीवनी क्रिया 

करके अभयानंद के शरीर से अलग हुए अंगो को जोड़कर शक्तिपात क्रिया की जिसके प्रभाव से शरीर का सारा दर्द समाप्त होकर एक नयी दिव्यता प्राप्त होगयीऔर अभ्यानन्दजी तुरन्त उठ खड़े हुए गुरूजी ने अभयानंद को सीने से लगा लिया और सभी शिष्यों की ओर मुह करके बोले कि शिष्य ऐसे होते है और कहा कि आज वही क्रिया संपन्न करूंगा जो ऋषि भराजद्वाज ने अपने शिष्य लोम को 

माथे पर अंगुष्ठ रख सारी सिद्धिया प्रदान की थी यही क्रिया निखिलेस्वरानंदजी ने अभ्यानंद के साथ संपन्न की और दीक्षा प्रदान की और यह क्रिया संपन्न होते ही अभयानंद जी को गुरूजी ने समस्त सिद्धि या प्रदान कर दी और इस प्रकार अभयानन्द हिमालय के उच्च कोटि के सन्यासियो में विख्यात हो गये। । 


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